
सर्वधर्म सद्भाव भारत का प्रचलित शब्द है। यहां के जैसी विविधता दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है। जहां कुछ अंशों में मजहबी अंतर है, वहां तनाव व्याप्त है। लोग एक-दूसरे को संदेह से देखते हैं। सभ्यताओं के संघर्ष का विस्तृत इतिहास है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर अपनी सुदृढ़ विदेश नीति का परिचय दिया। उन्होंने इस्राइल पर हमास के आतंकी हमले को घोर निंदनीय बताया। कहा कि इस संकट के समय भारत इस्राइल के साथ है। वस्तुतः नरेंद्र मोदी का निर्णय राष्ट्रीय हित और भारतीय विरासत के अनुरूप है। इस्राइल ने चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध भारत को खुला समर्थन दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्राइल ने भारत का साथ दिया। उसने यहां तक कहा कि भारत यदि चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करेगा तो इस्राइल पूरी सहायता देगा।इसलिए हमास के हमले के समय भारत ने इस्राइल के प्रति सहानुभूति दिखाई। यह नैतिक रूप से भी उचित था। दूसरी बात यह कि भारत ने सदैव आतंकवाद का विरोध किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ में आतंकवाद के विरुद्ध साझा रणनीति बनाने का प्रस्ताव नरेंद्र मोदी ने ही किया था। हमास आतंकी संगठन है। उसने इस्राइल पर आतंकी हमला किया है। ऐसे में भारत द्वारा हमले की निंदा सर्वथा उचित है। इस विषय पर भारत की विपक्षी पार्टियां चुप रहतीं, तब भी गनीमत थी। इनमें कांग्रेस एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है। उसकी भी लोकसभा में दयनीय दशा है। अन्य सभी तो क्षेत्रीय दल हैं। वे यदि आतंकवाद के विरोध का साहस नहीं दिखा सकते थे तो कोई भी टिप्पणी न करते लेकिन इन सभी पार्टियों ने हमास के आतंकी हमले को अपनी वोटबैंक सियासत के नजरिये से देखा। उसी हिसाब से बयान देने की होड़ मच गई। अनुमान लगाया जा सकता है कि यूपीए सरकार में आतंकी हमले क्यों होते थे। जबकि नरेंद्र मोदी ने भारत की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा को मजबूत बनाया है। नरेंद्र मोदी ने पिछले कार्यकाल में ही इस्राइल और अरब देशों के साथ संबंध बेहतर बनाने पर ध्यान दिया था। यह नीति कारगर साबित हुई।मोदी के सौर ऊर्जा प्रस्ताव को भी अरब देशों का समर्थन मिला था। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ में नरेंद्र मोदी के अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को अरब देशों ने भी स्वीकार किया था। इस दिन वहाँ भी बड़े पैमाने पर योग के कार्यक्रम होते हैं।
उधर, नेतन्याहू ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का समर्थन किया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि कश्मीर भारत का हिस्सा है। इतना ही नहीं उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की प्रशंसा की थी। इस प्रकरण से यह भी प्रमाणित हुआ कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की विश्व में सराहना हो रही है। इजरायल बड़ा सहयोगी बनकर उभरा है, इसी के साथ अरब देश भी नरेंद्र मोदी की नीतियों के मुरीद हुए हैं। मोदी की मध्यपूर्व नीति की बड़ी सफलता यह भी है कि उन्होंने अरब मुल्कों और इजरायल के साथ दोस्ती को मजबूत किया। इसके पहले कांग्रेस की सरकारों में इजरायल से दोस्ती को लेकर बड़ा संकोच था। उन्हें लगता था कि इजरायल के साथ दोस्ती मुस्लिम देशों को नाराज कर देगी। मोदी ने साहस दिखाया। अरब और इजरायल दोनों से संबन्ध बेहतर बनाकर दिखा दिया।
दुनिया में शांति, सौहार्द कायम करना है, मानवता को सुरक्षित रखना है तो आतंकवाद के खिलाफ साझा रणनीति बनानी होगी क्योंकि आतंकवाद अब किसी एक क्षेत्र की समस्या नहीं है। आतंकवाद सारी दुनिया के लिए खतरा है,उसे पनाह देना और फंडिंग को बंद करना चाहिए। आतंकवाद और आतंकी तौर तरीकों का विस्तार हो रहा है। आतंकवाद दुनिया के लिए खतरा बन चुका है। उसे संरक्षण और वित्तीय सहायता देने वालों पर कड़ाई से रोक लगानी होगी। ओआईसी के सदस्य देश इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। उन देशों पर दबाव बनाया जाए जो इसका समर्थन करते हैं और इसे फंडिंग करते हैं। ऐसे देशों से कहना चाहिए कि वह आतंकवादी ढांचे को खत्म करे। आतंकवाद शांति और सद्भावना को कमजोर कर रहा है।
1988 में यासिर अराफात ने मध्यपूर्व में इस्राइल के अस्तित्व को मान्यता देते हुए स्वतन्त्र फिलिस्तीन निर्मांण की नीति घोषित की थी। इसके बाद ही समाधान की संभावना दिखाई दी थी किंतु इस नीति के विरोध में हमास की गतिविधियां बढ़ने लगी थी। इससे इस्राइल को शांति प्रक्रिया रोककर जवाबी कार्रवाई का मौका मिला। इसके लिए उस समय भी हमास ही जिम्मेदार था। मध्यपूर्व में यहूदी राष्ट्र के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। अल अक्शा मस्जिद से मुसलमानों की आस्था जुड़ी है। यहूदियों की आस्था यहां के टेंपल माउंट से जुड़ी है। दावा है कि यहां उनके दो प्राचीन पूजा स्थल हैं, जिनमें पहले को किंग सुलेमान ने बनवाया था। बेबीलोन्स ने इसे तबाह कर दिया था। फिर उसी जगह यहूदियों का दूसरा मंदिर बनावाया गया जिसे रोमन साम्राज्य ने नष्ट कर दिया था। इसका उल्लेख बाइबिल में भी बताया जाता है।
जाहिर है कि इस्राइलियों का दावा सर्वाधिक प्राचीन है। इस समय यहां इजरायल का कब्जा है। यरुशलम में ही ईसाइयों का द चर्च ऑफ द होली सेपल्कर है। मान्यता है कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था। यहीं प्रभु यीशु के पुनर्जीवित हो उठने वाली जगह भी है। 1967 के युद्ध में इजराइल ने पूर्वी यरुशलम पर भी कब्जा कर लिया था। पूरे यरुशलम को ही वह अपनी राजधानी मानता रहा है। फिलिस्तीनी भी इसे अपनी भावी राजधानी के रूप में देखते हैं। इजराइल का वर्तमान भू भाग कभी तुर्की के अधीन था। तुर्की का वह साम्राज्य ओटोमान कहलाता है। जब 1914 में पहले विश्व युद्ध के दौरान तुर्की के मित्र राष्ट्रों के खिलाफ होने से तुर्की और ब्रिटेन के बीच युद्ध हुआ, ब्रिटेन ने युद्ध जीतकर ओटोमान साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया।
जियोनिज्म विचार के अनुसार यहूदियों ने अपनी मूल व मातृभूमि को पुनः हासिल करने का संकल्प लिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी स्थापना के दो वर्ष बाद फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांटने का निर्णय लिया। इस प्रकार इस्राइल अस्तित्व में आया। 1993 में इस्राइली नेतृत्व व अराफात दोनों ने लचीला रुख दिखाते हुए ओस्लो समझौता किया था। इसके अनुसार इस्राइल ने पहली बार फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता प्रदान की थी। यह भी तय हुआ था कि पश्चिमी तट के जेरिको और गाजा पट्टी में फिलिस्तीनियों को सीमित स्वयत्तता प्रदान की जाएगी। 1996 में गाजा पट्टी क्षेत्र के करीब दस लाख मतदाताओं ने अट्ठासी सीटों के लिए मतदान किया था। इसी परिषद ने बाद में यासिर अराफात को फिलिस्तीन का राष्ट्रपति निर्वाचित किया था। 1997 में अराफात की पहल पर फिर एक समझौता हुआ। इससे तय हुआ कि पश्चिमी तट का अस्सी प्रतिशत हिस्सा तीन चरणों में फिलिस्तीन को सौप दिया जाएगा लेकिन हर बार हमास की गतिविधियों ने शांति प्रयासों को विफल किया है। इससे इस्राइल को फिलिस्तीन पर हमले का अवसर मिलता है। जाहिर है कि हमास को दशकों से जारी अपनी आतंकी मानसिकता बदलनी होगी। इस संवेदनशील मसले का समाधान शांति वार्ता से ही निकल सकता है।